Monday, March 31, 2008

मयरावना (महरावना) - इतिहास : History of Mairawna

मयरावना (महरावना) इतिहास के आइने में - Historical Account of Mairawna; a traditional Uttarakhand Village in Doon Valley





प्रस्तावना

जौनसार बावर के विभिन्न गांव अपने गर्त में सदियों पुराना इतिहास छिपाये हुये है। इनसे संबंधित अलग-अलग गाथाएं, ऐतिहासिक घटनाएं व गोरवांवित करनेवाली कहानियां जुड़ी है। परंतु हमारा दुर्भाग्य है कि वह केवल मौखिक आदान-प्रदान तक सीमित रही है। नतीजा वास्तविकता व हमारे आज के ज्ञान में दूरी बड़ी है साथ ही उनमें भ्रांतियां जुड़ने की सम्भावना से भी इनकार नहीं किया जा सकता। हम अंदाजा नहीं लगा सकते कि गांव बसाने वाला व्यक्ति-परिवार कौन था, किन हालातों में उन्होने जीवनयापन किया, कैसे-कैसे गांव व वंशों का विकास हुआ। बहुत सारे लोग अपने परिवार के सदस्यों के बारे में जानकारी का मौका सदा के लिये शायद खो चुके हैं। अतः वक्त आ चुका है कि हम जितना जानते हैं या जितना आसानी से पता लगा सकते हैं उतना तुरन्त लिख डालें। क्षेत्र में किसी एक रीवाज, एक या कुछेक विभुतियों या फिर सामाजिक समस्याओं के बारे में लेखनियां लिखी गयी है। परन्तु मुझे किसी गांव विशेष ऐतिहासिक पृष्ठभूमि को पढ़ने का मौका नहीं मिला।
आवश्यकता को मद्धयनजर मैने सोचा क्यों न अपने गांव मयरावना के इतिहास को लिखने का प्रयास किया जाये। अतः यह लेख आपके सामने है। मुझे मालूम है कि इस शोध अध्धयन को प्रोत्साहन मिलेगा और प्रासांगिकता व सत्यता को करीब लाने में मिलेगी। विभिन्न घटनाओं का वर्णन वास्विकता से कुछ भिन्न हो सकते है। किसी अन्य गांव से संबंध घटनाओं के बारे में उन गांवों में प्रचलित कथन से मिलान इस मौके पर नहीं हो पाया है। यदि कोई व्यक्ति इस कड़ी में अपना योगदान दे सके चाहे वह ऊपर लिखी घटनाओं के बारे में हो, मयरावना के इतिहास के बारे में उनकी को ई जानकारी हो या फिर कोई अन्य घटनाएं हो, उनसे अनुरोध है कि वह लेखक से सम्पर्क करें।

रमेश चन्द जोशी
Email: rameshcjoshi@hotmail.com



परिचय
मयरावना उत्तराखंड के जिला देहरादून की उत्तरी पहाडियों में स्थित एक छोटा-सा गांव है। समुद्र तल से करीब 2000 मीटर की ऊचाई वाले इस गांव को तीन ओर से सदाबहार वृक्ष सुशोभित करते हैं। यहां से सुदूर पहाड़ पर पाण्डवों के इतिहास की गाथा बताने वाली गौरा घाटी हिमालय पर्वत के सौन्दर्य के दर्शन कराती है। इस ेख को तैयार करने में श्री मायारीम जोशी (रीठांण) ने महत्वपूर्णजानकारियां दी। साथ ही श्री दयाराम जोशी (फेंचरांण) व श्री संतराम जोशी (फेंचराण) ने भी जानकारियां देकर अपना सहयोग दिया। अतः उनका मैं सादर धन्यवाद करता हूं। इस गांव की ब्राहमणों के अलावा अन्य जातियों के बारे में ज्यादा जानकारी नहीं दी जा सकी है। इसे करने का प्रयास आगे किया जायेगा।

आगमन
मयरावना गांव में मूलरूप से बुद्धिजीवी ब्राहमण परिवार वासी है। यह स्थान भैंरव देवता के मंदिर के लिए जाना जाता है। ऐसा माना जाता है तथा बु्र्जगों ने उत्तरोत्तर पीढ़ियों को बताया है कि बुरास्वा गांव के एक रावत परिवार ने हिमालय प्रदेश के मईपूर गांव से एक ब्राहमण को देवी-देवताओं की पूजायापन के लिए अपने साथ आने का निमंत्रण दिया, जिसे उस ब्राहमण परिवार ने स्वीकार किया। इस निमंत्रण रा एर अन्य कारण भी रहा। पहाड़ी क्षेत्रों में प्रारंभ से प्रथा रही कि ब्राहमण परिवार जिसे ठेमाण नाम से जाना जाता है हिमाचल प्रदेश से जौनसार के लिए रवाना हुआ। इस घटना की कोई निश्चित तिथि नहीं कही जा सकती, परंतु परिवार के वर्तमान स्वरुप, विस्तार व उनके पूर्वजों का अध्ययन करने से अंदाजा लगाया जा सकता है कि यह आज से करीब 1000 वर्ष पुरानी बात रही होगी।

थालर से शुरूआत
इस क्षेत्र में पहुंचने पर रावत परिवार -बुरास्वा- नामक स्थान पर बस गया, जब कि ब्राहमण परिवार ने थालर(मंजखित्ता) नामक स्थान को भैंरव देवता के मंदिर स्थापना के लिए चुना। इसका चुनाव दो कारणों से किया गया, एक यहां पवित्र कुथनोई नदी (जो यमुना की सहायक नदी है) पास में थी ताकि स्नान आदि करके पूजा पाठ किया जा सके। दूसरे यह स्थान सात खतों (कई गांवों का राजनीतिक व सामाजिक समूह) का केंद्र बिंदु था, ये सात खतें हैं- बनगांव (जिसके अंतर्गत यह स्थान पड़ता है), द्वार, मनख, अटगांव, विशलाड़, शेली, बंदूर तथा तपलाड़। एक बार इस स्थान पर यहां बड़ी लड़ाई हुई। जिसमें कई लोग मारे गये तथा बहुत बड़े पैमाने पर खून-खराबा हुई। जिसमें कई लोग मारे गये तथा बहुत बड़े पैमाने पर खून खराबा हुआ। केंद्र बिंदु होने से तथा नदी का चौड़ा बहाव के कारण अनेक गांवों के लोगों ने हिन्दु मान्यता के अनुसार इस स्थान को दांह-संस्कार के लिए चुना। इन कारणों से इस स्थान की पवित्रता में कमी आई।

भैंरव का देवरा में मंदिर स्थापना
में शव दाह से उड़ता धुंआ तथा खूनी लड़ाई के कारण भैंरव देवता ब्राहमण के सपने में आये और इस स्थान को अपने मंदिर व पूजा अर्चना के लिए अनुपयुक्त बताया। इस कारण इस ब्राहमण ने वहां पूजायापन करने से इनकार कर दिया। पिरणामस्वरूप भैंरव देवता के मंदिर को थालर (मंजखिला) स्थान से -भैंरव का देवरा- नामक स्थान पर प्रतिस्थापित किया गया । यह स्थान मयरावना गांव से दक्षिण पू्र्व दिशा में थोड़ी कम ऊंचाई पर दूसरे पहाड़ के पश्चिम वाले भाग पर स्थित है। कहा जाता है कि ब्राहमण ने यहां पर पूजा ध्यान किया तथा जैसे ही मंदिर स्थापना के लिए नींव का पत्थर लगाया, प्राकृतिक रूप से वहां पानी का स्त्रोत निकला। उस पानी को आज भी पवित्र माना जाता है तथा हल्का स्त्रोत विद्यमान है। -भैरव का देवरा- स्थान स्थानिय बोली में - भवरो को देवरो नाम से भी जाना जाता है।

मयरावना की खोज
मयरावना स्थान की खोज एक अनोखी घटना चक्र का हिस्सा है। उस ब्राहमण परिवार का धीरे-धीरे विस्तार होने लगा। उसने खेती-कृषि कार्य के साथ पशू-पालन व्यवसाय होने व शिक्षा का अभाव से घर-परिवार का प्रत्येक सदस्य, जिसमें बच्चे शामिल है, किसी न किसी रूप में अपना योगदान देते थे। गोरू (गाय-बैलों व बछड़ों का समुह) चराने का कार्य -ज्यादत्तर- छोटे बच्चों के जिम्मे रहता था। जब भी बच्चे गोरू चराने मयरावना नामक स्थान (-भैरव का देवरा- के सामने पश्चिमकी ओर ऊंची पहाड़ी पर) पर जाते, उस दिन उनके जानवरों को भरपेट चारा मिलता तथा गायर बच्चों (स्थानिय बोली में गाय-बैल चराने वाले को -गायर- कहा जाता है) को कम भूख लगती व उनका दिन का खाना बच जाता, जिसे वे घर बापस ले आते। जब अक्सर ऐसा होने लगा तो परिवारवासियों को इस का जानने का मन हुआ। गायर बच्चों ने जब उक्त तथ्य का खुलासा किया तो सब आश्चर्यचकित हुए। इसकी पृष्टि के लिए, कहा जाता है कि कई दिन तक बच्चों व जानवरों के चरागाहों पर नजर रखी गयी । इस घटना की सत्यता साबित होने पर मयरावना नामक स्थान की पवित्रता व इस पर ईश्वरीय कृपा का एहसास उन सबको हुआ। इस पर उस ब्राहमण ने मयरावना नामक स्थान को अपने निवास व परिवार बसाने के लिए चुना। मयरावना के पश्चिम में बुरास्वा गांव है।

मयरावना में सूर्य की पहली किरण व मःरु वृक्ष से सुशुभित भैंरव मंदिर
मयरावना में बसने वाले परिवार का नाम -ठेमाण- पड़ा जो मईपूर से आये ब्राहमण टेमा दत्त के नाम पर पड़ा था। इसी दौरान यह परिवार बढ़ने लगा। क्षेत्र में जनसंख्या बढ़ने के साथ, पशुपालन व खेती के कारोबार में बढोतरी होने लगी। -भैरव का देवरा- मंदिर चारों ओर चरगाह बढ़ने लगे जबकि लोगों की रिहाइश दूर उनके गांवों में ही रही। कहा जाता है कि भैंरव देवता को यह बात नापसंद लगी। इस पर भैंरव देवता ने स्वप्नों व अन्य माध्यम से यह जाताया कि ब्राहमण परिवार को या तो -भैरव का देवरा- में वास करना होगा या मंदिर को मयरावना ले जाना होगा। पंडित ब्राहमण ने भैंरव देवता से आज्ञा लेकर शुभ लगन में मंदिर की स्थापना ऐसे उपयुक्त स्थान पर मयरावना गांव में की जहां भूमि समतल थी और सूर्य की पहली किरण मंदिर पर पड़ सके। बाद में मंदिर के एक कोने पर मःरु नाम वृक्ष उग आया जो इस स्थान के नाम को सुशोभित करता है। यह विशालकाय वृक्ष, इस तरह विकसित हुआ, मानो इस पर दैवी कृपा हो। अपनी तरह का एक मात्र व मनोहारी वृक्ष भैंरव देवता का मुकुट व छत्र का कार्य करता है। यह वृक्ष मंदिर के ऊपर अपनी शाखाएं आज भी फैलाए हुए है। इसकी सदाबहार हरी पत्तियां सदैव पूरे गांव में मीठी सी मुस्कान बिखेरती है। आज भी यह माना जाता है कि इस पेड़ पर कोई लोहे का हथियार लगाने की अनुमति देवता नहीं देते, जिसने भी ऐसा प्रयास किया, उसका दैवी सांप पीछा करते हैं।

रंणंना महासू देवता मंदिर
भैंरव का देवरा वाली पहाड़ी पर दक्षिण पूर्व में एक ऊंचे स्थान पर रंणंना नामक स्थान है, यहां आज भी पावन महासू देवता का मंदिर है। कहा जाता है कि यह स्थान एक समय इस पूरे क्षेत्र में आकर्षण का केंद्र था। नहान के राजा की कनिष्ठ रानियों में से एक के पुत्र (जिन्हें कौर कहते थे) को यह क्षेत्र मालगुजारी वसूल करने के लिए दिया गया था। इस पूरे इलाके पर नहान के राजा का राज था। उसके कौर पुत्र की रणंना में चौकी थी, जहां फरमान सुनाने व अन्य मसलों पर मीटिंग या पंचायतें आयोजित की जाती थी।

परिवारों का विस्तार
हालांकि इन घटनाओं की कोइ तिथि नहीं दी जाती सकती, परंतु यह कहा जाता है कि मंदिर स्थापना के बाद इस ब्राह्मण परिवार का विभाजन हुआ। इस दौरान फेचरू दत्त अन्य लोकों के साथ मुख्य परिवार से अलग हुआ। इस प्रकार मयरावना में एक और परिवार फेचरांण शाखा शुरू हुई, जिसके संस्थापक फेचरू दत्त थे। कुछ समय बीतने के बाद जैसे-जैसे दोनों परिवारों के सदस्यों की संख्या में वृद्धि हुई, उनमें तनाव बढ़ता गया। फेचराण परिवार में तनाव कुछ ज्यादा बढ़ा। एक समय ऐसा आया, जब इसके सदस्य आपसी तनाव नहीं झेल पाए और रीठू दत्त नामक व्यक्ति फेचरांण परिवार से अलग हुआ। इस प्रकार इस गांव में ब्राह्मणों के तीन परिवार बने। तीसरे परिवार का नाम रीठू दत्त के नाम पर रीठाण पड़ा। आज इन परिवारों की संख्या अन्य विभाजनों के कारण और अधिक बढ़ी है। परंतु अन्य परिवारों के नाम पर इन तीन मुख्य शाखाओं के नाम पर ही रखे। इनमें ठेमाण शाखा के पांच परिवार,फेरचरांण शाखा के दो और रीठांण शाखा के चार परिवार हैं। इस प्रकार मयरावना गांव के तीन ब्राह्मण परिवार शाखाएं ठेमांण, फेचरांण व रीठांण विकसित हुईं, जिन्हें यहां की बोली में आल कहा जाता है। इनके आस-पास अन्य जातियों के परिवार भी मयरावना गांव में समयानुसार बसते गए और पल्लवित-पुष्पित हुए।

कुछ प्रसिद्ध रीठांण
इस परिवार में ज्यादातर दो भाइयों की एक पीढ़ी रही है। इससे ज्यादा भाई जब भी पैदा हुए, उनमें आपसी मनमुटाव अधिक रहा। इनमें से कई ऊंची कद-काठी के बहादुर व बलशाली भी थे। इनमें छन्दा व भण्डु दो भाइयों के किस्से आज भी सुने जाते हैं। उनके सटीक निशानेबाजी पूरे क्षेत्र में प्रसिद्ध थी। उन दिनों खेती के अलावा शिकार (आखेट) खेलना महत्वपूर्ण था। एक बार मुन्धान का पूरा गांव गांव सैंकड़ो जवान तलवार व लाठियों के साथ उन पर हमले के लिए ढोआ लेकर आए। ऐसा इस कारण हुआ कि भण्डू से अनचाहे में अपनी पत्नी, जो मुन्धान गांव की थी, के बांह उखड़ गई थी। अपनी धियांठुड़ी (मायके में लड़कियों व औरतों को इसी नाम से पुकारा जाता है) पर अत्याचार इस पूरे क्षेत्र में अपमान माना जाता है। इस कारण मन्धान के लोक भण्डू व छन्दा को सबक सीखाना चाहते थे। परंतु इन दोनों की वीरता व धनुर्धरी प्रवीणता के बारे में जानकर सैकड़ो लोगों की लड़ाकू टोली को समझौता करने को मजबूर होना पड़ा।

शंक बोले तो ऐतिहासिक घटनाएं बड़े-बुजुर्गो द्वारा कही गई यादगार घटनाओं को शंक कहते हैं। एक शंक के मुताबिक ऐमू (नील गाय जैसा जानवर) मारने को लेकर मयरावना व शिर्वा गांव मे लोगों में मतभेद हो गया। यहां शिकार को पहले घाव लगाने वाले को अधिक मांस व जानवर की खाल देने की प्रथा होती थी। यह मसला, मयरावना के पक्ष में जाता देख, एक व्यक्ति मीटिंग स्थल से नजरे चुरा कर खाल लेकर भागा। करीब पचास मीटर पहा़ड़ पर चढ़ने के बाद वह दिखा, तो भण्डू दत्त ने वहीं से लाठी फेंक कर उसके पैरों में मार कर उसे गिरा दिया और वह पकड़ा गया। इसी दूर तक सटीक व कारगर वार से लोगों की आंखे फटी रह गईं। यह घटना ऐतिहासिक याद व मयरावना के गौरव के रूप में दर्ज हो गई।

इसी प्रकार रीठांण परिवार में यह शंक दी जाती है कि एक मौके पर क्वाया गांव में उनके मितरगण (यहां साले को मितर कहा जाता है) ने छन्दा को यह कहकर चिढ़ाना शुरू कर दिया कि उसके बाण करीब 200 मीटर तक कभी खाली जाते हैं, कि बात पूरी तरह झूठी है। उन्होंने छंदा को चुनौती दी कि वह अपनी निशानेबाजी को साबित करके दिखाए। लोगों की बहुत जिद पर छन्दा अपनी निशानेबाजी के जौहर दिखाने को तैयार हुआ। छन्दा ने यह हिदायत दी कि क्यावा गांव का एक व्यक्ति, जो उसके पास खड़ा रहेगा, को छोड़कर सभी अपने घरों में छिप जाएं और पशुओं को भी मकान के अंदर छिपा लें। क्यावा के लोगों ने ऐसा ही किया। दरअसल वे सब छन्दा व भण्डू की वीरता व तीर-धनुष में उसकी दक्षता के बारे में जानते थे। परंतु वे अपनी आंखों से उन्हें परखना चाहते थे। छन्दा ने इस प्रकार से अपना तीर छोड़ा कि लोगों व पशुओं का नुकसान न हो, कोई घर निशाना न बन जाए। फिर उसने गांव वालों को अपने घरों से बाहर आने को कहा और बताया कि उसके हाथ में आभास हुआ है कि उसका तीर किसी का लहू सेवन कर रहा है। खोजबीन करने पर क्वाया गांव के लोगों ने पाताय कि छन्दा का तीर गांव से दूर एक चूहे के सिर में घंसा हुआ है। क्वाया वालों ने इसे मानने से इंकार किया, तो फिर छंदा ने यह प्रक्रिया कई बार दोहराई। दूसरी बार में एक हिरण का शिकार हुआ। तीसरी बार में एक बाघ मारा गया। इस प्रकार प्रत्येक मौके पर उसके तीरों का शिकार कोई जंगली जानवर हुआ। सैकड़ो वर्ष बीत जाने के बाद आज भी रीठांण परिवार में इन किस्सों का जिक्र बड़े ही गर्व से होता है।

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